हैं बहुत अजीब सी बात पर मेरा शहर दिन में भी सोता हैं | आप कहेंगे ” क्या शहर भी कहीं सोता हैं ?” , जी हाँ अब तो शहर भी सोने लगे हैं | एक समय था जब लोग ही सोते थे | दिन भर काम करते थे , मेहनत मजदूरी से दिन भर काम करते थे और रात को थक कर सो जाते थे| पर दिन में जगे रहते थे , उनकी आखें खुली रहती थी , उनके कान सुनते थे, हाथ पैर हमेशा चलते थे और जब रात होती थी तो सब काम बंद हो जाते थे | शरीर की सारी कार्य प्रणाली रुक जाती थी और आदमी गहरी नीद में सो जाता था | इसे हम सोना समझते हैं | जब आदमी जिंदा हो पर न देख पाए , न सुन पाए , उसके हाथ पाँव स्थिर हो तो हम कहते हैं की वो आदमी सो रहा हैं | अपने ज्ञान से हम ये जानते हैं की एसी अवस्था जिसमे आदमीं जीवित तो हो पर कोई काम न करे , न सुन पाए , न चल पाए , न देख पाए तो वो सो रहा हैं | पर शहर कैसे सो सकता हैं , न तो शहर की आंखे होती , न कान होते हैं , और न ही हाथ पाँव , फिर एक शहर कैसे सो सकता हैं ?
लाख टके का सवाल हैं ये ? क्या शहर भी सोता हैं …. मेरा अनुभव बहुत ज्यादा नहीं पर जितना में देख पा रहा हूँ मुझे लगने लगा हैं की मेरा शहर तो सो रहा हैं | हर रोज लाखो लोग सुबह से रात तक काम करते हैं मेरे शहर में , हर रोज भीड़ की भीड़ बसों में , मेट्रो में , अपनी अपनी गाडियों में इधर से उधर , उधर से इधर जाते हैं , किसी न किसी से मिलते हैं , बातें करते हैं , बहुत सारा काम करते हैं , बहुत सारा पैसा भी कमाते हैं , लेकिन ये सारे लोग , इतने सारे लोग भी मिल के मेरे शहर को उठा नहीं पा रहे | शायद इन्हें पता भी नहीं की इनका शहर , मेरा शहर , हमारा शहर सो रहा हैं | अब आप मुझसे परेशान होने लगे होंगे की कैसे कोई शहर सो सकता हैं | बताता हूँ
मेरे शहर में लोगो को दिखाई नहीं देता , मेरे शहर में लोगो को सुनाई भी नहीं देता , मेरे शहर के लोगो के हाथ पाँव अब काम नहीं कर रहे , इसलिए मैं कहता हूँ की मेरा शहर सो रहा हैं |
मेरे शहर की आँखों की रोशनी एक दिन मैं नहीं गयी , ये अंधापन धीरे धीरे पता नहीं कब आ गया और हमे दिखना बंद हो गया | पहले हमे हर चीज़ उसके मायनों में ही समझ आती थी , वो मायने जो उस चीज़ को परिभाषित करते थे , वो परिभाषा जो सामाजिक मूल्यों के आधार पे बनाई गयी थी | और हर शहर इन सामाजिक मूल्यों पे ही बना था या बना हैं | हम गाँव को शहर से अच्छा नहीं मानते क्योंकि ऐसा समझा जाता है की शहर गाँव से अधिक सभ्य और सामाजिक आचरण में अधिक व्यवहार कुशल होते हैं | शहर में हर चीज़ का एक तरीका हैं और इसीलिए शहर शहर हैं| पर मेरे शहर में तरीके धीरे धीरे ख़तम हो रहे हैं | पहचान खतम हो रही हैं या लोग अब चीजों को पहचान नहीं पा रहे हैं , अब हम लोगो को बसों में या मेट्रो में कोई वृद्ध या कोई महिला खड़ी नहीं दिखती , चाहे वहां बहुत सारे ऐसे लोग हो जिन्हें हम से ज्यादा सीट की जरुरत होगी | हम एसे लोगो को देख ही नहीं पाते | सड़क की किनारे हमे भिखमंगे दिखाई देते हैं पर हम उन में बच्चे नहीं देख पाते , उनकी पहचान बच्चो से कब भिखमंगो की हो गयी हमे पता ही नहीं चला , हम बच्चे देख नहीं पा रहे, ये शहर नहीं देख पा रहा | हमे अब मोहल्ले की बेटी नहीं , कुछ और ही दीखता हैं |खैर
पहले हमे दुसरो का रोना सुनाई देता था , किसी की सिसकारी से हमारा ह्रदय फट जाता था , किसी विधवा का क्रंदन हम सह नहीं पाते थे | किसी के विलाप की परिकल्पना ही डरा देती थी पर अब हम ऍफ़ एम् सुनते हैं , जाहे बस में या कहीं और , हमारे कान में इयर फ़ोन लगा ही रहता हैं | अगर ऍफ़ एम् से मुक्त हुए तो कोई न कोई फ़ोन आ ही जाता हैं , प्यार की बातें , व्यापार की बातें , मुलाकात की बाते बहुत कुछ हैं सुनने को पर हम वो नहीं सुन पा रहे जो एक जगे हुए शहर में सुना जाता हैं | पहले हमारे हाथ हमेशा तत्पर रहते थे किसी की मदद के लिए , अगर किसी के लिए कहीं जाना हो तो हमारे पैर कूद के आगे जाते थे अब ऐसा नहीं होता | हमारे हाथ पैर नहीं चलते किसी और के लिए |
पर ये शहर मरा नहीं हैं क्योंकि अगर अपने किसी पे , या किसी परिवार के व्यक्ति के साथ कुछ अनिष्ट हो जाये तो हमारे सारी इन्द्रिया काम करने लगती हैं , जाग जाती हैं | हर चीज़ पूरी सामर्थ के साथ काम करती हैं | फिर आँख क्या , कान क्या , हाथ पैर क्या ? हम जाग जाते हैं और चाहते हैं की हमारे साथ हमारा शहर भी जग जाये | कोई शहर एक दिन में नहीं सोता न ही एक दिन में जाग जाता हैं | हर चीज़ धीरे धीरे होती हैं और धीरे धीरे ही उसका प्रभाव होता हैं | मैं तो इस शहर को जगाना चाहता हूँ , इसलिए जाग रहा हूँ | आप भी जागिये