पत्थर की दीवार

By Samir
In Poems
December 17, 2021
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मैं एक पत्थर की दीवार सा हूँ
जो ईंटों के इमारतों के शहर में
रह सा गया हूँ , बच सा गया हूँ

न ही हर साल मेरी पुताई हो सकती हैं
न लोगो की पसंद का कोई रंग मुझपे चढ़ता हैं
न अलग अलग रंगो में चमक सकता हूँ
एक खुदरंग पत्थर की दीवार सा हूँ
जो ईंटों के इमारतों के शहर में
रह सा गया हूँ , बच सा गया हूँ

न की खूटी लग सकती हैं न कोई कील
न कोई मनचाहा बदलाव किसी का होता हैं मुझपे
न बढ़ रहा हूँ न घट रहा हूँ किसी की मर्जी से
एक सख़्त पत्थर की दीवार सा हूँ
जो ईंटों के इमारतों के शहर में
रह सा गया हूँ , बच सा गया हूँ

न मुझमे कोई खिड़की बनी हैं न बन सकती हैं
न कोई दरवाजा बना पाया कोई मुझमे
न कोई रास्ता निकल पाता हैं मेरे होते किसी के लिए
एक बेबदल पत्थर की दीवार सा हूँ
जो ईंटों के इमारतों के शहर में
रह सा गया हूँ , बच सा गया हूँ

अब खुदरंग होना, सख़्त होना, बेबदल होना
अच्छा नहीं हैं  ईंटों के इमारतों के शहर में
बदलना अब जरुरत हैं, काबिलियत हैं
कोफ़्त हैं मेरे अपनों को मेरी खूबियों से
तोड़ने से डरते हैं पर मेरे टूटने का इंतज़ार हैं सबको
ताकि कर सके खड़ी एक दीवार ईंटों की उस जगह
जिसे रंग सके, बदल सके अपनी मर्जी से

पर मैं फिर भी एक पत्थर की दीवार हूँ
जो ईंटों के इमारतों के शहर में
रह सा गया हूँ , बच सा गया हूँ |

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